Thursday, 26 July 2018

मैं ग़लत काम गवारा तो नहीं कर सकता
दुश्मनों से भी मैं धोका तो नहीं कर सकता

जान देने की सहूलत भी अगर मिल जाए
हिज़्र में मरने का दावा तो नहीं कर सकता

बेवफ़ा  तुझको कहूं भी तो भला कैसे कहूं
हाय अफ़सोस मैं ऐसा तो नहीं कर सकता

तुझसे मैं दूर भी हो जाऊं अगर, तेरी क़सम
बीती यादों से किनारा तो नहीं कर सकता

ख़ानादारी की है ज़ंजीर मेरे पाओं  में
ख़ुदक़ुशी का मैं इरादा तो नहीं कर सकता

क्यों ये नफ़रत  की सनक पाल रहे हो दिल में
कोई नफ़रत  से गुज़ारा तो नहीं कर सकता

मैं अगर रोया मेरी माँ  भी बहुत रोयेगी
अपनी आँखों को मैं दरया तो नहीं कर सकता 
किसी को तुम कदूरत लग रही हो
मेरी लेकिन रऊनत लग रही हो

ख़यालों  में तराशी सर से पां  तक
मुझे तुम एक मूरत लग रही हो

मेरे सच पर यक़ीं  रक्खो क़सम से
बला की ख़ूबसूरत लग रही हो

था कब से मन्तज़िर जिसके लिए मैं
वही तुम शुभ मुहूरत लग रही हो

अजब है ज़हन पर इक बदहवाशी
किसी नश्शे की सूरत लग रही हो

यही सच है, यही सच है सरीहन
बदन की भी ज़रूरत लग रही हो   
तुमसे अब दूर हो चुका हूँ मैं
कितना मजबूर हो चुका हूँ मैं

तुमको रहती थी फ़िक्र माँ, देखो
कितना मशहूर हो चुका हूँ मैं

मौत आये तो चैन आ जाए
ज़ख़्म ए मामूर हो चुका हूँ मैं

ज़िंदगी ने मुझे पुकारा जब
थक के जब चूर हो चुका हूँ मैं

ज़ख़्म होता तो भर भी सकता था
अब तो नासूर हो चुका हूँ मैं

हिज़्र के बाद होना था पागल
सो बदस्तूर हो चुका हूँ मैं  

Sunday, 3 June 2018

मैं जानता हूँ बहुत देर हो चुकी है अब तेरी पसन्द मे शामिल कहीं नही हूँ मैं तू बन चुकी है किसी और दिल की धड़कन सो तुझे मैंं याद ही न आऊँ ये भी मुमकिन है मैं सब ये जानता हूँ फिर भी इक बुरा सा ख़्वाब
रोज़ आकर मुझे बेइंतहा डराता है

मैं देखता हूँ ये कि एक रात तुम मेरे सिराने लग के आ चुपचाप बैठ जाती हो अभी भी ठीक तुम वैसी ही ख़ूबसूरत हो अभी भी बाल हैं शाने से यूँ ढुलकते हुए कि जैसे हाइवे पहाड़ों से उतरते हैं अभी भी आंखें हैं ऐसी कि उसमें जो उतरे अगर तैराक भी हो फिर भी बच न पाएगा अभी भी सांसें इतनी गर्म हैं कि कोई एक गिलेशियर भी पिघलने से बच न पाएगा
ये सांसे मौशिकी पसंद भी इतनी हैै कि बस
एक ख़ास ही लय-ताल में वो चलती हैं उन सांसों की लहर पर ही तुम्हारा सीना ज्वार भाटे की तरह रक़्स किया करता है मगर ये क्या के मैंने जब तुम्हे छूना चाहा तुम उठ के सिरहाने से दूर जा बैठी तुम्हारी रूह और बदन के वो तमाम हिस्से जो मेरी लम्स से हरेक तौर वाकिफ़ थे अब अजनबी से मेरी ओर तक रहे थे सभी ये मेरे वास्ते भी हैरतनाक मंज़र था मैं क्या करूँ, न करूं कुछ नहीं समझ आया मैंने चाहा कि अपनी आंसुओं को ज़ब्त करूँ मैंने चाहा कि मैं चुपचाप कहूँ ठीक है सब तुम न चाहो तो हम फिर कभी मिलेंगे नहीं मगर इक बार तो आकर मेरे गले से लगो के जमा हुआ है जो खूँ फिर रगों में दौड़ पड़े और मैं मौत तक तो कम से कम पहुंच जाऊं और ये कहते हुए मिन्नतें मैं करने लगा तुम न मानी तो मैं ज़ारो कतार रोने लगा और मैं चीख़ पड़ा, नींद खुल चुकी थी मेरी यही होता है मेरी आँख जब भी लगती है
अब एक अरसा हो गया है, में नही सोता मेरा ये डर है कि सपने का डर मुझे शायद न मुझको जीने ही देगा न मरने ही देगा

फेसबुक

बहुत दिन हो गए अब फेसबुक पर नहीं आता हूँ अगर आ जाऊं भी तो क्यूँ कि जब हैं वही झगड़े और लड़ाई घर से लेकर चौक और फिर चौक से बाज़ार तक पसरी जो होती हैं और है वही सरहद जो खिंची होती है हर दो क़ौम, मज़हब, मुल्क़ या फिर दो ज़बानों में और है वही खाई भी, जुदा करती है जो हर पल ग़रीबों को आमीरों से रांझाओं को हीरों से वही रोती, बिलखती और हलक़ तक मौत लेकर दर बदर फिरती मुहब्बत है यहां भी और तिलक, तलवार, टोपी, ज़ात, मज़हब के सिरों पर फ़क्र से बैैैठी वो नफ़रत है यहां भी और सियासत के सभी घुसपैठिये भी सब यहां पर आ गए हैं सब यहां भी आ गए हैं और फिर कुछ बात भी तो है मुए इस फेसबुक मे कि यहाँ हो जो कोई भी सब के सब उस्ताद होते हैं नहीं कोई यहां है कमफ़हम न कमसुख़न ही है कोई भी मसअला हो इस जहां का या कहीं का हो अगर मालूम हो तो ठीक बेहतर है जो नामालूम हो तो तेज़ चीखेंगे मैं क्या पहनूं, मैं क्या खाऊं मैं कुछ बोलूं या न बोलूं वही मुझको बताएंगे फ़क़त अब शोर ही तो है यहां भी और फिर बेअक़्ल मैं आती नहीं मुझको समझ हर बात और जो आये भी तो उसपे यूँ लोगों का लड़ जाना जहां की हर बुरी ताक़त यहां पर और नंगी हो गयी है,ऐसा लगता है तो क्यूँ आऊं ये दुनिया कम थी गोया बेदिली को क्या कि हम एक और ले आये सो अब मैं फेसबुक पर नहीं आता हूँ बहुत दिन हो गए हैं नहीं करता है दिल अब यहां भी आ

मौत

हम सब जानते हैं
कि लम्हे दर लम्हे जोड़कर
बनाई गई ज़िन्दगी
ढह सकती है किसी भी पल
हम ये जानते हैं
के मौत इंतेज़ार कर रही है
हमारा
हर गली, नुक्कड़, चौराहे, घर, बाजार
हरेक जगह लेकिन
हमें ये मालूम नहीं कि
एक सी दिखने वाली सारी मौतों में से
कौन सी मौत
खड़ी है
किसे निगल जाने के लिए
फिर भी हम उन्हें नज़रअंदाज़ करते हुए
चले जाते हैं,
मुसलसल उसी की ओर
और ये भूल जाते हैं कि
किसी भी सूरत में हम
उससे बच नहीं सकते
ये सफ़र जहां अकेले चलना भी
कम दुश्वार नहीं होता
हम उठाते हैं
एक बड़ा सा ट्रेवल बैग
जिसमे ठूसते जाते हैं
नफ़रत, जलन, अहंकार
इज़्ज़त, शोहरत
और भी बहुत कुछ
और इसे उठाने की हिम्मत
जब नहीं बचती
तो हम झुंझला जाते हैं
अपने लोगों पर
या दूसरे लोगों पर भी
और रोकने लग जाते हैं
उनके रास्तेे
जिनके ट्रेवल बैग हल्के हैं,
जिनमे मुहब्बत भरी है
जो बहुत आराम से सफ़र कर रहे हैं
हम न जाने क्यूँ
अपनी नाक इतनी लंबी कर लेते हैं
कि जब होने लगती है तकलीफ़
ऑक्सीजन लेने में
तो अपने रिश्तेदार, समाज, मुल्क़ और क़ौम के
तमाम लोगों को भी ज़बरदस्ती
खींचना पड़ जाता है
ऑक्सीजन
उस एक लंबे नाक के लिए
न जाने हम क्यों रोज़ रिसर्च करते हैं
नफ़रत की एक नई वजह
और मर जाते हैं उस एक वजह के लिए
या मार देते हैं लोगों को
जीते जी
फिर घसीट कर ले जानी होती है
हमें अपनी-अपनी "लाशेें"
उस एक नुक्कड़ तक
जहां खड़ी होती है
मुन्तज़िर,
हमारी मौत
जबकि हम सब जानते हैं
कि हमें ये मालूम नहीं कि
एक सी दिखने वाली सारी मौतों में से
कौन सी मौत
अपनी है

Monday, 16 April 2018

तैरकर, डूबकर, हारकर आ गए
हमको जाना कहाँ था किधर आ गए 

हमसे ख़ुद को छुपाये तो रक्खा बहुत
आईने में मगर हम नज़र आ गए 

उसने अपनी कसम देके रुखसत किया 
अश्क संभले न थे हम मगर आ गए 

जा चुके थे हक़ीक़त में जो छोड़कर 
ख्वाब देखा कि वो लौटकर आ गए 

ईद के दिन मेरी ईद हो जायेगी
रु-ब-रु ईद के दिन अगर आ गए  

गाँव रोता रहा रुखसती पे तो क्या 
छोड़ आये उसे आह भर आ गए  
या तो दामन न कभी मुझसे छुड़ाया होता
या कोई और ही अपना सा दिखाया होता

हमसफ़र जो भी मिले वो थे बिछड़ने वाले
साथ कोई तो मेरे अपना-पराया  होता

तूने मिट्टी के खिलौने से मुझे बहलाया
जब बनाना ही था इंसान बनाया होता

सिलसिला कोई तो निस्बत का बनाए रखते
इश्क तो कर न सके , दिल ही दुखाया होता

या तो बख्शा ही न होता मुझे जीने का शऊर
या मुझे खौफ अजल का न दिखाया होता

ज़िंदगी से यूँ गिला कुछ कम नहीं है
क्या हुआ जो वो मेरा हमदम नहीं है

जिंदगी ही बोझ बनकर रह गयी है
सिर्फ तेरे जाने का ही ग़म नहीं है

लोग रोये फूट कर मैयत पे मेरी
आँख उनकी देखिये पुरनम नहीं है

यूँ कभी बादे सबा चलती है अब भी
ज़ुल्फे बरहम में मगर वो ख़म नहीं है

शख़्सियत उसकी सियासत से जुडी है
और उसमे कोई पेंच-ओ-ख़म नहीं है

एक से हैं ज़ात, मज़हब, धर्म सारे
हाथ में मेरे कोई परचम नहीं है
आज मझसे जुदा हुई दुनिया
जाने अब किसके घर गई दुनिया

हम जहाँ से चले वहीँ पहुंचे
और ये ख़त्म हो गयी दुनिया

इश्क़ के दुश्मनों को क्या मालूम
रोज़ मिलती है इक नयी दुनिया

आज क़ीमत है सिर्फ पैसों की
हाय बाज़ार बन गई दुनिया

देखते ही तुम्हे कहा दिल ने
हम बचेंगे अगर बची दुनिया

शबे हिज़्राँ में और क्या करता
हमने आपस में बाँट ली दुनिया

मेरे हिस्से में कुछ तेरी आई
तेरे हिस्से में कुछ मेरी दुनिया 
दाग़ चेहरे पे दिखने लगे हैं
आईने बात करने लगे है

वो तो कहते ही थे हमको काफ़िर
आप भी ऐसा कहने लगे हैं

हो गए हैं ख़फा आप जब से
हम भी गुमसुम से रहने लगे हैं

ज़ात, मज़हब, अमीरी, ग़रीबी
कैसी बातों पे लड़ने लगे हैं

धूप सर पे चढ़ी जा रही है
साए रस्ता बदलने लगे हैं

सीख लेंगे किसी रोज़ हम भी
ठोकरें खा के गिरने लगे हैं

चाँद, तारे, ये आँचल, वो जुगनू
शायरी हम भी करने लगे हैं
कभी ग़म बाँट लो यूँ भी किसी का
कभी यूँ भी मज़ा लो जिंदगी का

सिसक उठती है रहरहकर ख़मोशी
सिला कैसा मिला है आशिक़ी का

उसी से पार कर लूँगा समंदर
जो इक तिनका मिला है रौशनी का

वसीला था निज़ाते रंज़ो-ग़म का
इरादा तो नहीं था ख़ुदकुशी का

हमारे रु-ब-रु तुम आ जो बैठे
तो आलम लाज़मी था बेख़ुदी का

मेरी ये ज़िंदगी, अश्आर मेरे
ग़ज़ल मेरी है, सदक़ा आप ही का  
फिर बहुत कुछ कहा-अनकहा रह गया
तासहर आज फिर मैं जगा रह गया

यूँ तो बातें बहुत की थी उससे मगर
ख़ास जो था वही मसअला रह गया

सिसकियाँ दिल के अन्दर दबी रह गयीं
और होठों पे बस कहकहा रह गया

मरहमे वक़्त से ज़ख्म सब भर गए
ज़ख्म फ़ुरकत का बस इक हरा रह गया

इश्क होता है क्या मैं नहीं जानता
आपका जो हुआ आपका रह गया

जो तुम ग़रूर से अपने निकल सको तो चलो
रहो न बर्फ़ से जमकर पिघल सको तो चलो 

ये ज़िन्दगी कई शक्लों में तुमको ढालेगी 
हरेक शय में अगर तुम भी ढल सको तो चलो 

जो शख़्स छोड़ गया तुमको राह में तनहा 
बग़ैर उसके अगर तुम भी चल सको तो चलो 

करेगी मौत ही इक रोज़ क़ैदे ग़म से रिहा 
(करेगी मौत हमें क़ैदे बन्दे ग़म से रिहा )
इसी ख़याल से तुम भी बहल सको तो चलो   

किसी शहीद की बेवा ने आंसुओ से कहा 
गिरो न आँख से मेरी संभल सको तो चलो 

रदीफ़ो काफियाबंदी ग़ज़ल नहीं साहिब 
सुखन की राह अगर तुम बदल सको तो चलो
(मिज़ाजे शेर अगर तुम बदल सको तो चलो )
मैं उसके प्यार में कुछ खो सका न पा ही सका
छुपा भी पाया न उससे, कभी बता ही सका 

समझ न आया कभी दिल ये चाहता क्या है
न याद आया वो हरपल न मैं भुला ही सका

न जी सका कोई रांझा न हीर मिलजुलकर
कोई न उनको जुदा करके फिर मिला ही सका 

अजब चराग़ है ये इश्क़ भी कि जिसकी लौ
जला सका न कोई हाथ इसे बुझा ही सका

तवील रात, हवा सर्द, आख़िरी सिगरेट

मैं पी सका न जला के इसे बुझा ही सका 
ऐसा नहीं किया कभी वैसा नहीं किया
हमने जहाँ के वास्ते क्या क्या नहीं किया

वो चीख़ता रहा था कि क़ातिल है कोई और
लेकिन किसी ने उसपे भरोसा नहीं किया

बस इक हुनर में सारे जहाँ से पिछड़ गए
सब कुछ किया है हमने, तमाशा नहीं किया

बेशक़ हमें मिली है इसी जुर्म की सज़ा
ज़िद्दी थे हम कि दिल ने जो चाहा नहीं किया

बुझ बुझ के भी चराग़ सहर तक न बुझ सका
जैसा हवा ने चाहा था, वैसा नहीं किया

हैरां नहीं हूँ भूल गए दोस्त यार अगर
मैंने किसी के सामने सज्दा नहीं किया

तुमसे बहुत उमीद थी जानाँ हमें मगर
दिल से हमारे खेल के अच्छा नहीं किया 
और करोगे क्या मनमानी, छोड़ो भी
हर ख़ूबी है आनी-जानी, छोड़ो भी

मज़हब एक तरफ़ है, सरहद एक तरफ़
बीच में है इक प्रेम कहानी, छोड़ो भी

आँखों से इज़हारे मुहब्बत करके भी
अब करते हो  आनाकानी , छोड़ो भी

विष का प्याला भक्तिरस से टकराया
क्या बोले मीरा दीवानी, छोड़ो भी

कहने को तो मैंने क्या क्या कह डाला
आइ न अब तक बात बनानी, छोड़ो भी

कांपे होंठ कहा जब उसने जाती हूँ

बहता रहा आँखों से पानी, छोड़ो भी
दर्दो आलाम और ग़म के सिवा
जिंदगी क्या है बेशो कम के सिवा

अब मेरे पास कुछ बचा है क्या
एक बेजान से कलम के सिवा

रास्ता है तवील हस्ती का
कोई मंजिल नहीं अदम के सिवा 


मस्त आँखें, ये लब, ये हुस्न तेरा
कुछ नहीं है तेरे भरम के सिवा 

और हासिल भी क्या रहा मेरा
जिंदगानी के पेंचोख़म के सिवा