किसी को तुम कदूरत लग रही हो
मेरी लेकिन रऊनत लग रही हो
ख़यालों में तराशी सर से पां तक
मुझे तुम एक मूरत लग रही हो
मेरे सच पर यक़ीं रक्खो क़सम से
बला की ख़ूबसूरत लग रही हो
था कब से मन्तज़िर जिसके लिए मैं
वही तुम शुभ मुहूरत लग रही हो
अजब है ज़हन पर इक बदहवाशी
किसी नश्शे की सूरत लग रही हो
यही सच है, यही सच है सरीहन
बदन की भी ज़रूरत लग रही हो
मेरी लेकिन रऊनत लग रही हो
ख़यालों में तराशी सर से पां तक
मुझे तुम एक मूरत लग रही हो
मेरे सच पर यक़ीं रक्खो क़सम से
बला की ख़ूबसूरत लग रही हो
था कब से मन्तज़िर जिसके लिए मैं
वही तुम शुभ मुहूरत लग रही हो
अजब है ज़हन पर इक बदहवाशी
किसी नश्शे की सूरत लग रही हो
यही सच है, यही सच है सरीहन
बदन की भी ज़रूरत लग रही हो
No comments:
Post a Comment