बहुत दिन हो गए
अब फेसबुक पर नहीं आता हूँ
अगर आ जाऊं भी तो क्यूँ कि
जब हैं
वही झगड़े और लड़ाई
घर से लेकर चौक
और फिर चौक से बाज़ार तक
पसरी जो होती हैं
और है वही सरहद जो खिंची होती है
हर दो क़ौम, मज़हब, मुल्क़ या फिर दो ज़बानों में
और है वही खाई भी, जुदा करती है जो हर पल
ग़रीबों को आमीरों से
रांझाओं को हीरों से
वही रोती, बिलखती और हलक़ तक मौत लेकर
दर बदर फिरती मुहब्बत
है यहां भी
और तिलक, तलवार, टोपी, ज़ात, मज़हब के सिरों पर
फ़क्र से बैैैठी वो नफ़रत
है यहां भी
और सियासत के सभी घुसपैठिये भी
सब यहां पर आ गए हैं
सब यहां भी आ गए हैं
और फिर कुछ बात भी तो है
मुए इस फेसबुक मे कि
यहाँ हो जो कोई भी
सब के सब उस्ताद होते हैं
नहीं कोई यहां है कमफ़हम
न कमसुख़न ही है
कोई भी मसअला हो
इस जहां का या कहीं का हो
अगर मालूम हो तो ठीक
बेहतर है जो नामालूम हो तो
तेज़ चीखेंगे
मैं क्या पहनूं, मैं क्या खाऊं
मैं कुछ बोलूं या न बोलूं
वही मुझको बताएंगे
फ़क़त अब शोर ही तो है यहां भी
और फिर बेअक़्ल मैं
आती नहीं मुझको समझ हर बात
और जो आये भी तो उसपे
यूँ लोगों का लड़ जाना
जहां की हर बुरी ताक़त
यहां पर और नंगी हो गयी है,ऐसा लगता है
तो क्यूँ आऊं
ये दुनिया कम थी गोया बेदिली को
क्या
कि हम एक और ले आये
सो अब मैं
फेसबुक पर नहीं आता हूँ
बहुत दिन हो गए हैं
नहीं करता है दिल अब यहां भी आ
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