Monday, 16 April 2018

तैरकर, डूबकर, हारकर आ गए
हमको जाना कहाँ था किधर आ गए 

हमसे ख़ुद को छुपाये तो रक्खा बहुत
आईने में मगर हम नज़र आ गए 

उसने अपनी कसम देके रुखसत किया 
अश्क संभले न थे हम मगर आ गए 

जा चुके थे हक़ीक़त में जो छोड़कर 
ख्वाब देखा कि वो लौटकर आ गए 

ईद के दिन मेरी ईद हो जायेगी
रु-ब-रु ईद के दिन अगर आ गए  

गाँव रोता रहा रुखसती पे तो क्या 
छोड़ आये उसे आह भर आ गए  
या तो दामन न कभी मुझसे छुड़ाया होता
या कोई और ही अपना सा दिखाया होता

हमसफ़र जो भी मिले वो थे बिछड़ने वाले
साथ कोई तो मेरे अपना-पराया  होता

तूने मिट्टी के खिलौने से मुझे बहलाया
जब बनाना ही था इंसान बनाया होता

सिलसिला कोई तो निस्बत का बनाए रखते
इश्क तो कर न सके , दिल ही दुखाया होता

या तो बख्शा ही न होता मुझे जीने का शऊर
या मुझे खौफ अजल का न दिखाया होता

ज़िंदगी से यूँ गिला कुछ कम नहीं है
क्या हुआ जो वो मेरा हमदम नहीं है

जिंदगी ही बोझ बनकर रह गयी है
सिर्फ तेरे जाने का ही ग़म नहीं है

लोग रोये फूट कर मैयत पे मेरी
आँख उनकी देखिये पुरनम नहीं है

यूँ कभी बादे सबा चलती है अब भी
ज़ुल्फे बरहम में मगर वो ख़म नहीं है

शख़्सियत उसकी सियासत से जुडी है
और उसमे कोई पेंच-ओ-ख़म नहीं है

एक से हैं ज़ात, मज़हब, धर्म सारे
हाथ में मेरे कोई परचम नहीं है
आज मझसे जुदा हुई दुनिया
जाने अब किसके घर गई दुनिया

हम जहाँ से चले वहीँ पहुंचे
और ये ख़त्म हो गयी दुनिया

इश्क़ के दुश्मनों को क्या मालूम
रोज़ मिलती है इक नयी दुनिया

आज क़ीमत है सिर्फ पैसों की
हाय बाज़ार बन गई दुनिया

देखते ही तुम्हे कहा दिल ने
हम बचेंगे अगर बची दुनिया

शबे हिज़्राँ में और क्या करता
हमने आपस में बाँट ली दुनिया

मेरे हिस्से में कुछ तेरी आई
तेरे हिस्से में कुछ मेरी दुनिया 
दाग़ चेहरे पे दिखने लगे हैं
आईने बात करने लगे है

वो तो कहते ही थे हमको काफ़िर
आप भी ऐसा कहने लगे हैं

हो गए हैं ख़फा आप जब से
हम भी गुमसुम से रहने लगे हैं

ज़ात, मज़हब, अमीरी, ग़रीबी
कैसी बातों पे लड़ने लगे हैं

धूप सर पे चढ़ी जा रही है
साए रस्ता बदलने लगे हैं

सीख लेंगे किसी रोज़ हम भी
ठोकरें खा के गिरने लगे हैं

चाँद, तारे, ये आँचल, वो जुगनू
शायरी हम भी करने लगे हैं
कभी ग़म बाँट लो यूँ भी किसी का
कभी यूँ भी मज़ा लो जिंदगी का

सिसक उठती है रहरहकर ख़मोशी
सिला कैसा मिला है आशिक़ी का

उसी से पार कर लूँगा समंदर
जो इक तिनका मिला है रौशनी का

वसीला था निज़ाते रंज़ो-ग़म का
इरादा तो नहीं था ख़ुदकुशी का

हमारे रु-ब-रु तुम आ जो बैठे
तो आलम लाज़मी था बेख़ुदी का

मेरी ये ज़िंदगी, अश्आर मेरे
ग़ज़ल मेरी है, सदक़ा आप ही का  
फिर बहुत कुछ कहा-अनकहा रह गया
तासहर आज फिर मैं जगा रह गया

यूँ तो बातें बहुत की थी उससे मगर
ख़ास जो था वही मसअला रह गया

सिसकियाँ दिल के अन्दर दबी रह गयीं
और होठों पे बस कहकहा रह गया

मरहमे वक़्त से ज़ख्म सब भर गए
ज़ख्म फ़ुरकत का बस इक हरा रह गया

इश्क होता है क्या मैं नहीं जानता
आपका जो हुआ आपका रह गया

जो तुम ग़रूर से अपने निकल सको तो चलो
रहो न बर्फ़ से जमकर पिघल सको तो चलो 

ये ज़िन्दगी कई शक्लों में तुमको ढालेगी 
हरेक शय में अगर तुम भी ढल सको तो चलो 

जो शख़्स छोड़ गया तुमको राह में तनहा 
बग़ैर उसके अगर तुम भी चल सको तो चलो 

करेगी मौत ही इक रोज़ क़ैदे ग़म से रिहा 
(करेगी मौत हमें क़ैदे बन्दे ग़म से रिहा )
इसी ख़याल से तुम भी बहल सको तो चलो   

किसी शहीद की बेवा ने आंसुओ से कहा 
गिरो न आँख से मेरी संभल सको तो चलो 

रदीफ़ो काफियाबंदी ग़ज़ल नहीं साहिब 
सुखन की राह अगर तुम बदल सको तो चलो
(मिज़ाजे शेर अगर तुम बदल सको तो चलो )
मैं उसके प्यार में कुछ खो सका न पा ही सका
छुपा भी पाया न उससे, कभी बता ही सका 

समझ न आया कभी दिल ये चाहता क्या है
न याद आया वो हरपल न मैं भुला ही सका

न जी सका कोई रांझा न हीर मिलजुलकर
कोई न उनको जुदा करके फिर मिला ही सका 

अजब चराग़ है ये इश्क़ भी कि जिसकी लौ
जला सका न कोई हाथ इसे बुझा ही सका

तवील रात, हवा सर्द, आख़िरी सिगरेट

मैं पी सका न जला के इसे बुझा ही सका 
ऐसा नहीं किया कभी वैसा नहीं किया
हमने जहाँ के वास्ते क्या क्या नहीं किया

वो चीख़ता रहा था कि क़ातिल है कोई और
लेकिन किसी ने उसपे भरोसा नहीं किया

बस इक हुनर में सारे जहाँ से पिछड़ गए
सब कुछ किया है हमने, तमाशा नहीं किया

बेशक़ हमें मिली है इसी जुर्म की सज़ा
ज़िद्दी थे हम कि दिल ने जो चाहा नहीं किया

बुझ बुझ के भी चराग़ सहर तक न बुझ सका
जैसा हवा ने चाहा था, वैसा नहीं किया

हैरां नहीं हूँ भूल गए दोस्त यार अगर
मैंने किसी के सामने सज्दा नहीं किया

तुमसे बहुत उमीद थी जानाँ हमें मगर
दिल से हमारे खेल के अच्छा नहीं किया 
और करोगे क्या मनमानी, छोड़ो भी
हर ख़ूबी है आनी-जानी, छोड़ो भी

मज़हब एक तरफ़ है, सरहद एक तरफ़
बीच में है इक प्रेम कहानी, छोड़ो भी

आँखों से इज़हारे मुहब्बत करके भी
अब करते हो  आनाकानी , छोड़ो भी

विष का प्याला भक्तिरस से टकराया
क्या बोले मीरा दीवानी, छोड़ो भी

कहने को तो मैंने क्या क्या कह डाला
आइ न अब तक बात बनानी, छोड़ो भी

कांपे होंठ कहा जब उसने जाती हूँ

बहता रहा आँखों से पानी, छोड़ो भी
दर्दो आलाम और ग़म के सिवा
जिंदगी क्या है बेशो कम के सिवा

अब मेरे पास कुछ बचा है क्या
एक बेजान से कलम के सिवा

रास्ता है तवील हस्ती का
कोई मंजिल नहीं अदम के सिवा 


मस्त आँखें, ये लब, ये हुस्न तेरा
कुछ नहीं है तेरे भरम के सिवा 

और हासिल भी क्या रहा मेरा
जिंदगानी के पेंचोख़म के सिवा