Wednesday, 25 September 2024

सुसाइड

कभी कभी मैं ख़ुद अपने में गुम

ये सोचता हूँ

कि मुझको जाने ये क्या हुआ है

न जाने अंदर क्या चल रहा है

या क्या है वो जो रुका हुआ है


क्या कोई हसरत थी ज़िन्दगी में

जो मुझको हासिल नहीं हुई है

क्या कोई रस्ता था जिसपे यूँ ही

मैं बेसबब चलना चाहता था

या कोई मंज़िल

जहाँ पहुँचने की ज़िद को मैंने दबा रखा था


क्या कोई है जिसको बारहा मैं 

गहन उदासी में सोचता हूँ

या कोई जिसको भुला दिया है

क्या मेरी साँसे 

हैं ऊबकर कर रही बग़ावत

या मेरी धड़कन उलझ गई हैं


वो ज़िम्मेदारी का बोझ है क्या 

कि जिसके अंदर दबा हुआ हूँ

या कोई अपना बिछड़ चुका है

मैं जिसकी ख़ातिर रुका हुआ हूँ

या चार लोगों का खौफ़ है वो

मैं जिसकी ख़ातिर छुपा हुआ हूँ


न जाने क्या है

न कोई ग़म है

न दिल मे खुशियाँ

मैं बदहवासी में जी रहा हूँ

मैं धीरे धीरे पिघल रहा हूँ

है ज़िन्दगी ये अधिक सुहानी

या मौत होगी ... उलझ रहा हूँ

Monday, 25 November 2019


सोचा तो था, जिंदगी भर तेरे, संग गुज़ारुंगा शामो सहर
लेकिन न जाने हमारी मुहब्बत को किसकी लगी है नज़र 

है क्या ज़हन में वो रातें सुहानी अब           
हम तुम बनाते थे मिलकर कहानी जब
कभी चाँद दिखता था बादल के टीलों पे
कभी हमसे मिलता था छत के मुंडेरों पे
और चांदनी का बिछौना बिछाकर हम  
फूलों की ख़ुशबू का तकिया लगाकर हम  
घंटो गुज़िश्ता से आइन्दा जाते थे
और प्रेम गंगा में डुबकी लगाते थे
फिर दो बदन ऐसे आपस मे घुलते थे
बाहों मे एक दूसरे के पिघलते थे
चन्दन सी मिलने की रातें महकती थी
और पूर्णिमा सी अमावस चमकती थी  

लेकिन न जाने कहाँ से थी आई इक ऐसी वो ज़ालिम लहर
सबकुछ बहा ले गयी साथ अपने और मुझको हुई न ख़बर

अब भी वो छत है, जो था राज़दां भी
अठखेलियाँ करता वो आसमां भी
अब भी वो सपने हैं, जिके लिए हम
दुनिया की ताकत से मिलकर लड़े हम 
अब तक तेरे बोसे इन होंठों पर हैं
कोशिश भुलाने के सब बेअसर हैं
अब भी तेरी मुंतज़िर हैं निगाहें
दिल मेरा फैलाए बैठा है बाहें
अब भी मुझे याद हैं सारे वादे
हमको निभाने थे जो आधे-आधे
पर तुम नहीं हो, न आराम है अब
हाँ ग़मज़दों मे बहुत नाम है अब

अब तो हैं केवल वो यादों के किरचे जो चुभते हैं आठों पहर
मेरे कहीं दिल की गहराइयों में है उम्मीद अब भी मगर

Thursday, 26 July 2018

मैं ग़लत काम गवारा तो नहीं कर सकता
दुश्मनों से भी मैं धोका तो नहीं कर सकता

जान देने की सहूलत भी अगर मिल जाए
हिज़्र में मरने का दावा तो नहीं कर सकता

बेवफ़ा  तुझको कहूं भी तो भला कैसे कहूं
हाय अफ़सोस मैं ऐसा तो नहीं कर सकता

तुझसे मैं दूर भी हो जाऊं अगर, तेरी क़सम
बीती यादों से किनारा तो नहीं कर सकता

ख़ानादारी की है ज़ंजीर मेरे पाओं  में
ख़ुदक़ुशी का मैं इरादा तो नहीं कर सकता

क्यों ये नफ़रत  की सनक पाल रहे हो दिल में
कोई नफ़रत  से गुज़ारा तो नहीं कर सकता

मैं अगर रोया मेरी माँ  भी बहुत रोयेगी
अपनी आँखों को मैं दरया तो नहीं कर सकता 
किसी को तुम कदूरत लग रही हो
मेरी लेकिन रऊनत लग रही हो

ख़यालों  में तराशी सर से पां  तक
मुझे तुम एक मूरत लग रही हो

मेरे सच पर यक़ीं  रक्खो क़सम से
बला की ख़ूबसूरत लग रही हो

था कब से मन्तज़िर जिसके लिए मैं
वही तुम शुभ मुहूरत लग रही हो

अजब है ज़हन पर इक बदहवाशी
किसी नश्शे की सूरत लग रही हो

यही सच है, यही सच है सरीहन
बदन की भी ज़रूरत लग रही हो   
तुमसे अब दूर हो चुका हूँ मैं
कितना मजबूर हो चुका हूँ मैं

तुमको रहती थी फ़िक्र माँ, देखो
कितना मशहूर हो चुका हूँ मैं

मौत आये तो चैन आ जाए
ज़ख़्म ए मामूर हो चुका हूँ मैं

ज़िंदगी ने मुझे पुकारा जब
थक के जब चूर हो चुका हूँ मैं

ज़ख़्म होता तो भर भी सकता था
अब तो नासूर हो चुका हूँ मैं

हिज़्र के बाद होना था पागल
सो बदस्तूर हो चुका हूँ मैं  

Sunday, 3 June 2018

मैं जानता हूँ बहुत देर हो चुकी है अब तेरी पसन्द मे शामिल कहीं नही हूँ मैं तू बन चुकी है किसी और दिल की धड़कन सो तुझे मैंं याद ही न आऊँ ये भी मुमकिन है मैं सब ये जानता हूँ फिर भी इक बुरा सा ख़्वाब
रोज़ आकर मुझे बेइंतहा डराता है

मैं देखता हूँ ये कि एक रात तुम मेरे सिराने लग के आ चुपचाप बैठ जाती हो अभी भी ठीक तुम वैसी ही ख़ूबसूरत हो अभी भी बाल हैं शाने से यूँ ढुलकते हुए कि जैसे हाइवे पहाड़ों से उतरते हैं अभी भी आंखें हैं ऐसी कि उसमें जो उतरे अगर तैराक भी हो फिर भी बच न पाएगा अभी भी सांसें इतनी गर्म हैं कि कोई एक गिलेशियर भी पिघलने से बच न पाएगा
ये सांसे मौशिकी पसंद भी इतनी हैै कि बस
एक ख़ास ही लय-ताल में वो चलती हैं उन सांसों की लहर पर ही तुम्हारा सीना ज्वार भाटे की तरह रक़्स किया करता है मगर ये क्या के मैंने जब तुम्हे छूना चाहा तुम उठ के सिरहाने से दूर जा बैठी तुम्हारी रूह और बदन के वो तमाम हिस्से जो मेरी लम्स से हरेक तौर वाकिफ़ थे अब अजनबी से मेरी ओर तक रहे थे सभी ये मेरे वास्ते भी हैरतनाक मंज़र था मैं क्या करूँ, न करूं कुछ नहीं समझ आया मैंने चाहा कि अपनी आंसुओं को ज़ब्त करूँ मैंने चाहा कि मैं चुपचाप कहूँ ठीक है सब तुम न चाहो तो हम फिर कभी मिलेंगे नहीं मगर इक बार तो आकर मेरे गले से लगो के जमा हुआ है जो खूँ फिर रगों में दौड़ पड़े और मैं मौत तक तो कम से कम पहुंच जाऊं और ये कहते हुए मिन्नतें मैं करने लगा तुम न मानी तो मैं ज़ारो कतार रोने लगा और मैं चीख़ पड़ा, नींद खुल चुकी थी मेरी यही होता है मेरी आँख जब भी लगती है
अब एक अरसा हो गया है, में नही सोता मेरा ये डर है कि सपने का डर मुझे शायद न मुझको जीने ही देगा न मरने ही देगा

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बहुत दिन हो गए अब फेसबुक पर नहीं आता हूँ अगर आ जाऊं भी तो क्यूँ कि जब हैं वही झगड़े और लड़ाई घर से लेकर चौक और फिर चौक से बाज़ार तक पसरी जो होती हैं और है वही सरहद जो खिंची होती है हर दो क़ौम, मज़हब, मुल्क़ या फिर दो ज़बानों में और है वही खाई भी, जुदा करती है जो हर पल ग़रीबों को आमीरों से रांझाओं को हीरों से वही रोती, बिलखती और हलक़ तक मौत लेकर दर बदर फिरती मुहब्बत है यहां भी और तिलक, तलवार, टोपी, ज़ात, मज़हब के सिरों पर फ़क्र से बैैैठी वो नफ़रत है यहां भी और सियासत के सभी घुसपैठिये भी सब यहां पर आ गए हैं सब यहां भी आ गए हैं और फिर कुछ बात भी तो है मुए इस फेसबुक मे कि यहाँ हो जो कोई भी सब के सब उस्ताद होते हैं नहीं कोई यहां है कमफ़हम न कमसुख़न ही है कोई भी मसअला हो इस जहां का या कहीं का हो अगर मालूम हो तो ठीक बेहतर है जो नामालूम हो तो तेज़ चीखेंगे मैं क्या पहनूं, मैं क्या खाऊं मैं कुछ बोलूं या न बोलूं वही मुझको बताएंगे फ़क़त अब शोर ही तो है यहां भी और फिर बेअक़्ल मैं आती नहीं मुझको समझ हर बात और जो आये भी तो उसपे यूँ लोगों का लड़ जाना जहां की हर बुरी ताक़त यहां पर और नंगी हो गयी है,ऐसा लगता है तो क्यूँ आऊं ये दुनिया कम थी गोया बेदिली को क्या कि हम एक और ले आये सो अब मैं फेसबुक पर नहीं आता हूँ बहुत दिन हो गए हैं नहीं करता है दिल अब यहां भी आ