कभी कभी मैं ख़ुद अपने में गुम
ये सोचता हूँ
कि मुझको जाने ये क्या हुआ है
न जाने अंदर क्या चल रहा है
या क्या है वो जो रुका हुआ है
क्या कोई हसरत थी ज़िन्दगी में
जो मुझको हासिल नहीं हुई है
क्या कोई रस्ता था जिसपे यूँ ही
मैं बेसबब चलना चाहता था
या कोई मंज़िल
जहाँ पहुँचने की ज़िद को मैंने दबा रखा था
क्या कोई है जिसको बारहा मैं
गहन उदासी में सोचता हूँ
या कोई जिसको भुला दिया है
क्या मेरी साँसे
हैं ऊबकर कर रही बग़ावत
या मेरी धड़कन उलझ गई हैं
वो ज़िम्मेदारी का बोझ है क्या
कि जिसके अंदर दबा हुआ हूँ
या कोई अपना बिछड़ चुका है
मैं जिसकी ख़ातिर रुका हुआ हूँ
या चार लोगों का खौफ़ है वो
मैं जिसकी ख़ातिर छुपा हुआ हूँ
न जाने क्या है
न कोई ग़म है
न दिल मे खुशियाँ
मैं बदहवासी में जी रहा हूँ
मैं धीरे धीरे पिघल रहा हूँ
है ज़िन्दगी ये अधिक सुहानी
या मौत होगी ... उलझ रहा हूँ
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