Sunday, 3 June 2018

मैं जानता हूँ बहुत देर हो चुकी है अब तेरी पसन्द मे शामिल कहीं नही हूँ मैं तू बन चुकी है किसी और दिल की धड़कन सो तुझे मैंं याद ही न आऊँ ये भी मुमकिन है मैं सब ये जानता हूँ फिर भी इक बुरा सा ख़्वाब
रोज़ आकर मुझे बेइंतहा डराता है

मैं देखता हूँ ये कि एक रात तुम मेरे सिराने लग के आ चुपचाप बैठ जाती हो अभी भी ठीक तुम वैसी ही ख़ूबसूरत हो अभी भी बाल हैं शाने से यूँ ढुलकते हुए कि जैसे हाइवे पहाड़ों से उतरते हैं अभी भी आंखें हैं ऐसी कि उसमें जो उतरे अगर तैराक भी हो फिर भी बच न पाएगा अभी भी सांसें इतनी गर्म हैं कि कोई एक गिलेशियर भी पिघलने से बच न पाएगा
ये सांसे मौशिकी पसंद भी इतनी हैै कि बस
एक ख़ास ही लय-ताल में वो चलती हैं उन सांसों की लहर पर ही तुम्हारा सीना ज्वार भाटे की तरह रक़्स किया करता है मगर ये क्या के मैंने जब तुम्हे छूना चाहा तुम उठ के सिरहाने से दूर जा बैठी तुम्हारी रूह और बदन के वो तमाम हिस्से जो मेरी लम्स से हरेक तौर वाकिफ़ थे अब अजनबी से मेरी ओर तक रहे थे सभी ये मेरे वास्ते भी हैरतनाक मंज़र था मैं क्या करूँ, न करूं कुछ नहीं समझ आया मैंने चाहा कि अपनी आंसुओं को ज़ब्त करूँ मैंने चाहा कि मैं चुपचाप कहूँ ठीक है सब तुम न चाहो तो हम फिर कभी मिलेंगे नहीं मगर इक बार तो आकर मेरे गले से लगो के जमा हुआ है जो खूँ फिर रगों में दौड़ पड़े और मैं मौत तक तो कम से कम पहुंच जाऊं और ये कहते हुए मिन्नतें मैं करने लगा तुम न मानी तो मैं ज़ारो कतार रोने लगा और मैं चीख़ पड़ा, नींद खुल चुकी थी मेरी यही होता है मेरी आँख जब भी लगती है
अब एक अरसा हो गया है, में नही सोता मेरा ये डर है कि सपने का डर मुझे शायद न मुझको जीने ही देगा न मरने ही देगा

फेसबुक

बहुत दिन हो गए अब फेसबुक पर नहीं आता हूँ अगर आ जाऊं भी तो क्यूँ कि जब हैं वही झगड़े और लड़ाई घर से लेकर चौक और फिर चौक से बाज़ार तक पसरी जो होती हैं और है वही सरहद जो खिंची होती है हर दो क़ौम, मज़हब, मुल्क़ या फिर दो ज़बानों में और है वही खाई भी, जुदा करती है जो हर पल ग़रीबों को आमीरों से रांझाओं को हीरों से वही रोती, बिलखती और हलक़ तक मौत लेकर दर बदर फिरती मुहब्बत है यहां भी और तिलक, तलवार, टोपी, ज़ात, मज़हब के सिरों पर फ़क्र से बैैैठी वो नफ़रत है यहां भी और सियासत के सभी घुसपैठिये भी सब यहां पर आ गए हैं सब यहां भी आ गए हैं और फिर कुछ बात भी तो है मुए इस फेसबुक मे कि यहाँ हो जो कोई भी सब के सब उस्ताद होते हैं नहीं कोई यहां है कमफ़हम न कमसुख़न ही है कोई भी मसअला हो इस जहां का या कहीं का हो अगर मालूम हो तो ठीक बेहतर है जो नामालूम हो तो तेज़ चीखेंगे मैं क्या पहनूं, मैं क्या खाऊं मैं कुछ बोलूं या न बोलूं वही मुझको बताएंगे फ़क़त अब शोर ही तो है यहां भी और फिर बेअक़्ल मैं आती नहीं मुझको समझ हर बात और जो आये भी तो उसपे यूँ लोगों का लड़ जाना जहां की हर बुरी ताक़त यहां पर और नंगी हो गयी है,ऐसा लगता है तो क्यूँ आऊं ये दुनिया कम थी गोया बेदिली को क्या कि हम एक और ले आये सो अब मैं फेसबुक पर नहीं आता हूँ बहुत दिन हो गए हैं नहीं करता है दिल अब यहां भी आ

मौत

हम सब जानते हैं
कि लम्हे दर लम्हे जोड़कर
बनाई गई ज़िन्दगी
ढह सकती है किसी भी पल
हम ये जानते हैं
के मौत इंतेज़ार कर रही है
हमारा
हर गली, नुक्कड़, चौराहे, घर, बाजार
हरेक जगह लेकिन
हमें ये मालूम नहीं कि
एक सी दिखने वाली सारी मौतों में से
कौन सी मौत
खड़ी है
किसे निगल जाने के लिए
फिर भी हम उन्हें नज़रअंदाज़ करते हुए
चले जाते हैं,
मुसलसल उसी की ओर
और ये भूल जाते हैं कि
किसी भी सूरत में हम
उससे बच नहीं सकते
ये सफ़र जहां अकेले चलना भी
कम दुश्वार नहीं होता
हम उठाते हैं
एक बड़ा सा ट्रेवल बैग
जिसमे ठूसते जाते हैं
नफ़रत, जलन, अहंकार
इज़्ज़त, शोहरत
और भी बहुत कुछ
और इसे उठाने की हिम्मत
जब नहीं बचती
तो हम झुंझला जाते हैं
अपने लोगों पर
या दूसरे लोगों पर भी
और रोकने लग जाते हैं
उनके रास्तेे
जिनके ट्रेवल बैग हल्के हैं,
जिनमे मुहब्बत भरी है
जो बहुत आराम से सफ़र कर रहे हैं
हम न जाने क्यूँ
अपनी नाक इतनी लंबी कर लेते हैं
कि जब होने लगती है तकलीफ़
ऑक्सीजन लेने में
तो अपने रिश्तेदार, समाज, मुल्क़ और क़ौम के
तमाम लोगों को भी ज़बरदस्ती
खींचना पड़ जाता है
ऑक्सीजन
उस एक लंबे नाक के लिए
न जाने हम क्यों रोज़ रिसर्च करते हैं
नफ़रत की एक नई वजह
और मर जाते हैं उस एक वजह के लिए
या मार देते हैं लोगों को
जीते जी
फिर घसीट कर ले जानी होती है
हमें अपनी-अपनी "लाशेें"
उस एक नुक्कड़ तक
जहां खड़ी होती है
मुन्तज़िर,
हमारी मौत
जबकि हम सब जानते हैं
कि हमें ये मालूम नहीं कि
एक सी दिखने वाली सारी मौतों में से
कौन सी मौत
अपनी है