Monday, 25 November 2019


सोचा तो था, जिंदगी भर तेरे, संग गुज़ारुंगा शामो सहर
लेकिन न जाने हमारी मुहब्बत को किसकी लगी है नज़र 

है क्या ज़हन में वो रातें सुहानी अब           
हम तुम बनाते थे मिलकर कहानी जब
कभी चाँद दिखता था बादल के टीलों पे
कभी हमसे मिलता था छत के मुंडेरों पे
और चांदनी का बिछौना बिछाकर हम  
फूलों की ख़ुशबू का तकिया लगाकर हम  
घंटो गुज़िश्ता से आइन्दा जाते थे
और प्रेम गंगा में डुबकी लगाते थे
फिर दो बदन ऐसे आपस मे घुलते थे
बाहों मे एक दूसरे के पिघलते थे
चन्दन सी मिलने की रातें महकती थी
और पूर्णिमा सी अमावस चमकती थी  

लेकिन न जाने कहाँ से थी आई इक ऐसी वो ज़ालिम लहर
सबकुछ बहा ले गयी साथ अपने और मुझको हुई न ख़बर

अब भी वो छत है, जो था राज़दां भी
अठखेलियाँ करता वो आसमां भी
अब भी वो सपने हैं, जिके लिए हम
दुनिया की ताकत से मिलकर लड़े हम 
अब तक तेरे बोसे इन होंठों पर हैं
कोशिश भुलाने के सब बेअसर हैं
अब भी तेरी मुंतज़िर हैं निगाहें
दिल मेरा फैलाए बैठा है बाहें
अब भी मुझे याद हैं सारे वादे
हमको निभाने थे जो आधे-आधे
पर तुम नहीं हो, न आराम है अब
हाँ ग़मज़दों मे बहुत नाम है अब

अब तो हैं केवल वो यादों के किरचे जो चुभते हैं आठों पहर
मेरे कहीं दिल की गहराइयों में है उम्मीद अब भी मगर